हम ही पंछी
हम ही पिंजर
हम ही तूफां
हम ही लंगर
कवियत्री पारुल खख्खर
कवियत्री ने मत्ले में संकेत दीये हैं। इस ग़ज़ल में वो व्यक्तित्व के दो ध्रुवों को पेश करेगी। कवियत्री कहती है हम ही पंछी...इन्सान सदियों से पंखी की तरह उड़ने के स्वप्न देख रहा है।
स्वप्न को पूरा करने के लिए हेलिकोप्टर, बलून, विमान के अविष्कार भी किये है। मगर पंखी की तरह स्वतन्त्र रूप से उड़ना अब तक संभव नहीं हुआ है। जीवन में कुछ हासिल करने के प्रयासों को 'उड़ने' के साथ जोड़ सकते हैं। इन्सान सपनों को सच करने के लिए खुले गगन में उड़ना चाहता है पर...
इसी मिसरे में कवियत्री आगे कहती है हम ही पिंजर..। इन्सान ने खुद ऐसे पिंजरे बनाये हैं। जो उस की उडान को रोकते हैं। जाति, धर्म, प्रान्त, राज्य, राष्ट्र ऐसे पिंजरे हैं। जो उडान में बाधा बनते हैं। इन की सलाखें इतनी मजबूत है की इन्सान चाहकर भी तोड़ नहीं पाता। विशेषत: जाति व धर्म के पिंजरे इतने मजबूत हैं कि बड़े बड़ों को चित्त कर देते हैं।
सानी मिसरे में कवियत्री कहती है कि हम ही तूफां..। इंसान के जीवन में कई तूफान आते हैं। जो उस के भीतर कई तूफान खड़े कर देते हैं। एक घटना [खास तौर से दुर्घटना] मन में , जीवन में कई चक्रवातों को ले आती है। माता-पिता के रहते संतान कि मृत्यु, कम उम्र में जीवनसाथी से बिछड़ जाना, बचपन में माता-पिता की छत्रछाया से वंचित हो जाना; एसी घटनाएँ हैं। जो चक्रवातों को जन्म देती हैं। एसी घटनाएँ आस्तिक को नास्तिक व नास्तिक को आस्तिक बना देती हैं।
इसी मिसरे में कवियत्री आगे कहती है हम ही लंगर..। इन्सान तूफानों का सफलतापूर्वक सामना करने की हिम्मत भी रखता है। इस के लिए उसे कई मोर्चों [मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक] पर एक साथ झूझना पड़ता है। दुर्घटना के कारण मानसिक शारीरिक समस्याओं के पैदा होने का खतरा रहता है। सामाजिक स्तर पर पारिवारिक प्रतिष्ठा के झीर झीर होने का का खतरा होता है या मिल चुकी हो तो वापस प्राप्ति का संघर्ष सामने होता है। मानसिक समस्याएं हो तो व्यवसाय में नुकसान हो सकता है। इन मोर्चों पर इंसान झूझता है। धन्य है, प्रशंशनीय है वो इंसान जो सफलता के किनारे पर लंगर डालकर ही चैन की साँस लेता है।
गुजराती अख़बार 'जयहिंद' में मेरी कोलम 'अर्ज़ करते हैं' में ता.19/08/2012 को छपे लेख का हिंदी भावान्तर
कुमार अहमदाबादी/अभण अमदावादी
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