स्वागत

मेरे 'शब्दों के शहर' में आप का हार्दिक स्वागत है। मेरी इस दुनिया में आप को देशप्रेम, गम, ख़ुशी, हास्य, शृंगार, वीररस, आंसु, आक्रोश आदि सब कुछ मिलेगा। हाँ, नहीं मिलेगा तो एक सिर्फ तनाव नहीं मिलेगा। जिंदगी ने मुझे बहुत कुछ दिया है। किस्मत मुज पर बहुत मेहरबान रही है। एसी कोई भावना नहीं जिस से किस्मत ने मुझे मिलाया नहीं। उन्हीं भावनाओं को मैंने शब्दों की माला में पिरोकर यहाँ पेश किया है। मुझे आशा है की मेरे शब्दों द्वारा मैं आप का न सिर्फ मनोरंजन कर सकूँगा बल्कि कुछ पलों के लिए 'कल्पना-लोक' में ले जाऊंगा। आइये आप और मैं साथ साथ चलते हैं शब्दों के फूलों से सजी कल्पनाओं की रंगीन दुनिया में....

Thursday 30 August 2012

स्वप्न संकेत पार्ट २

 मेरी पोस्ट 'स्वप्न का इशारा' पढ़कर एक कमेंट्स ये हुई की "एसा नहीँ हो सकता की हमारे अंतरमन में कोइ बात बैठ गई हो और वो स्वपन के रुप मे उभर के आती हो, फिर कोइ बडी घटना घटती है और हमारा मन उस घटना और स्वपन के बीच सटीक मेल बिठाने के लिये तर्क रखता हो, और हम उसे पूर्वभास स्वपन नाम दे देते हों।"     हम किसी बात या मुद्दे में डूब जाते हैं या गहरी शिद्दत से उस के बारे में सोचते हैं तो उस से संबंधित व्यक्ति या घटना हमें न सिर्फ रात में बल्कि दिन में भी दिखने लगते हैं। लगे रहो मुन्नाभाई में मुन्नाभाई को ईसी वजह से गाँधीजी दिखते हैं। एक बहुत पुरानी फिल्म 'यही है जिन्दगी' में भी संजीवकुमार कृष्ण से उसी तरह बातें करते हैं जैसे मुन्ना गाँधीजी से करता है।


ये उन दिनों की बात है। जब मैं ग़ज़ल 'मंजर एक दिन' लिख रहा था। मैंने जितेंद्र अढिया की किताब 'प्रेरणा नुं झरणुं' पढ़ी है। जिस में मन के कार्य व कार्यशैली के बारे में काफी जानकारी दी गई है। मन से कार्य करवाने की तकनीक दी गई है। ग़ज़ल लिखने से कुछ महीने पहले मैंने वो किताब पढ़ी थी। सो मन से कार्य करवाने के प्रयोग कर रहा था। गजल के कुछ शेर लिख चुका था। ग़ज़ल का मत्ला था।

हम जमाने को दिखाएँगे वो मंजर एक दिन
मुट्ठियों में कैद कर लेंगे समंदर एक दिन


ईन परिस्थितियों की पश्चाद भूमिका में मुझे स्वप्न संकेत का अनुभव हुआ।


ये अनुभव उस दिन हुआ। जिस दिन मैंने न्यूज चैनलों पर एक रातनीतिक पक्ष के कार्यकर्ताओँ को उत्तर भारतीयों के विरुद्ध कार्रवाई करते देखा। मैंने दिनभर बारबार वे द्रश्य देखे थे। जिस में कार्यकर्ता तोड़फोड कर रहे थे। लोगों को पीट रहे थे। आगजनी कर रहे थे। वो सारे द्रश्य मुझे बहुत व्यथित कर रहे थे। लोकतंत्र के कमजोर पक्ष को उजागर कर रहे थे। व्यवस्था तंत्र या तो जानबूझकर सख्त कदम नहीं उठा रहा था, या ईतना कमजोर था कि उठा नहीं पा रहा था।


दिल ने कहा "ग़ज़ल मेँ ईस घटना से जुड़ा शेर लिखूँ।" उसी दिन रात को सोते वक्त जब तक नींद आई तब तक मन को (प्रेरणा नं झरणुं किताब में दी गई सूचनाओँ के अनुसार) आज्ञा देता रहा कि 'मुझे जो शेर लिखना है उस के बारे में कुछ संकेत दो। कोई एसा संकेत दो कि शानदार शेर अर्थपूर्ण शेर लिखूँ।"

दोस्तों मन ने संकेत दिया और क्या खूब संकेत दिया। मुझे रात को स्वप्न आया। स्वप्न में टीवी पर जो देखे थे वही द्रश्य दिखाई दिये। वही तोड़फोड़, आगजनी, परप्रांतियोँ की पिटाई करते राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता पर................... कार्यकर्ताओँ के चेहरे? कार्यकर्ताओँ के शरीर तो ईन्सानों के थे पर चेहरे ईन्सानों के नहीं थे। मन ने अलग चेहरों के द्वारा संकेत दिया था। चेहरे बंदरों के थे। सुबह उठते ही मैंने शेर लिखा, 



भीड़वादी राज करवाता है कितनी तोड़फोड़
सच कहे इतिहास सचमुच हम थे बंदर एक दिन

ये वो अनुभव है जिस के बारे में मैं ये नहीं कह सकता की किसी स्वप्न का मैंने किसी घटना के घटने के बाद संबंध जोड़ दिया। ईस विषय में मन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। हम जो देखते हैं सोचते हैं समझते है। उन सब के आधार पर मन अपनी एक अलग दुनिया का निर्माण करता है। मन की दुनिया का स्वप्नोँ से गहरा रिश्ता है। मगर एसा भी नहीं है कि स्वप्न सदा कुछ न कुछ संकेत करते ही हैं। इस विषय में सब की अपनी अपनी राय होती है। कोई किसी को चेलेंज नहीं कर सकता।
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महेश सोनी 
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