स्वागत

मेरे 'शब्दों के शहर' में आप का हार्दिक स्वागत है। मेरी इस दुनिया में आप को देशप्रेम, गम, ख़ुशी, हास्य, शृंगार, वीररस, आंसु, आक्रोश आदि सब कुछ मिलेगा। हाँ, नहीं मिलेगा तो एक सिर्फ तनाव नहीं मिलेगा। जिंदगी ने मुझे बहुत कुछ दिया है। किस्मत मुज पर बहुत मेहरबान रही है। एसी कोई भावना नहीं जिस से किस्मत ने मुझे मिलाया नहीं। उन्हीं भावनाओं को मैंने शब्दों की माला में पिरोकर यहाँ पेश किया है। मुझे आशा है की मेरे शब्दों द्वारा मैं आप का न सिर्फ मनोरंजन कर सकूँगा बल्कि कुछ पलों के लिए 'कल्पना-लोक' में ले जाऊंगा। आइये आप और मैं साथ साथ चलते हैं शब्दों के फूलों से सजी कल्पनाओं की रंगीन दुनिया में....

Thursday 13 December 2012

चटकते लब


 रंज ईतने मिले जमाने से
लब चटकते हैं मुस्कुराने से
सिया सचदेव

सिया सचदेव बेहद भावुक कवयित्री है। ये बात प्रस्तुत ग़ज़ल का मत्ला पढ़ने से स्पष्ट
हो जाती है। उला मिसरे में कवयित्री सूचित करती है कि समाज व दुनिया द्वारा पीड़ा मिली है। वेदना का मन पर हुए असर के बारे में सानी मिसरे में बताया
है। आदमी के घायल मन की असर उस के हास्य में भी दिखती है। कवयित्री ने 'लब चटकते हैं...' वाक्य द्वारा अद्भूत तरीके से मानसिक वेदना को उजागर किया
है। कवयित्री कहती है।जमाने ने ईतने गम दिये है कि खुशी के अवसर पर खुश होने से खुशी फट जाती है।

मत बनाओ ये काँच के रिश्ते
टूट जाएँगे आजमाने से

जीवन में कुछ एसे प्रसंग घटित होते हैं। जो रिश्तों की परीक्षा लेते हैं। उन्हें परखते हैं।
एसे अवसरों पर कांच से नाजुक रिश्ते पल के सौंवे हिस्से में टूट जाते हैं। काँच से रिश्ते टूट जाएँ तो आश्चर्य क्या? रिश्ते विश्वसनीय होने चाहिए। ख्याल कीजिए कवयित्री ये नहीं कहती रिश्ते बनाईये मत। वो ये कहती है काँच जैसे रिश्ते मत बनाईये।

हो ही जाएँगे सब रिहा ईक दिन
छूट जाएँगे कैदखाने से

दार्शनिक शेर
एक दिन सब को मुक्ति मिलनी है। ये जग कैदखाना है। यहाँ से सब की बिदाई तय है। हाँ बिदाई की तारीख या समय किसी को मालूम नहीं। कोई नहीं जानता कौन कब यात्रा पर रवाना हो जाय।

ता.25।11।2012 के दिन गुजराती दैनिक 'जयहिंद' में मेरी कॉलम 'अर्ज करते हैं' में छपे लेख का अनुवाद
कुमार अहमदाबादी/अभण अमदावादी

Monday 3 December 2012

खतरनाक दीमक

उस आदमी का गज़लें कहना कुसूर होगा
दुखती रगों को छूना जिस का शउर होगा
द्विजेन्द्र द्विज

मैंने द्विजेन्द्र द्विज की दो चार गज़लें हीं पढ़ी हैं। मगर उन की ग़ज़लों ने मुझे काफी प्रभावित  किया है। क्यों प्रभावित किया है। प्रस्तुत ग़ज़ल के दो शेर समझा देंगे। प्रस्तुत मत्ले में शायर कहते हैं। जिसे दूसरों के दुःख, दर्द से, पीर से खेलने में मजा आता है। जो किसी की दुखती नस पर उंगली रखकर आनंद लेता है। उस का काव्य कहना या लिखना गुनाह के बराबर है। क्यों? क्यों की काव्य साहित्य है। साहित्य का सृजन समाज के उत्थानके लिए, प्रगति के लिए किया जाता हैं; व्यक्ति को हताशा निराशा की खाई से निकलकर सफलता के पथ पर चलने के लिये प्रेरित करने के उद्देश्य से किया जाता है। व्यक्ति  व समाज में नवचेतना के  की लिए किया जाता है ना की उसे हताश निराश या पस्त करके के लिए। जब की दुखती रग पर हाथ रखने की आदतवाला व्यक्ति क्या करेगा? अपने शब्दों द्वरा किसी की खिल्ली उडाएगा, किसी को आहात करेगा। क्यों की व्यक्ति वही लिखता है। उन्हीं भावों को को पेश करता है। जो उस के स्वभाव में रचे बसे होते हैं। जब की साहित्य का उद्देश्य वो नहीं है।
दीमक लगी हुई हो जिस पेड़ की जड़ों में
कैसे भला फिर उस के पत्तों पर नूर होगा

कवि हमेशा में सागर भरता है। कम शब्दों में बहुत कह देता है। मेरा मन कहता है की मैं इसे बच्चो से जूडे दो विषयों से जोड़कर विश्लेषित करूँ। हालाँकि दोनों विषय आपस में भी जुड़े हैं। बच्चों के पालन पोषण व शिक्षा व्यवस्था दोनों को आज दीमक लग चुकी है।

पहले बच्चो को पालने के विषय को देखते हैं। आज कल माता-पिता  बच्चों का पालन-पोषण किस उद्देश्य से करते हैं? बच्चा बड़ा होकर सच्चा  इमानदार बनाने के या रुपैया पैसा छलकानेवाला 'ATM' बनाने के उद्देश्य से? आज के नब्बे प्रतिशत माता-पिता बच्चे को ATM बनाना चाहते हैं। ना की अच्छा सच्चा व नेक इंसान बनाना चाहते हैं। बच्चे को ATM बनाने की सोच एक वैचारिक दीमक है। जो मापा-पिता रूपी पेड़ की जड़ो को खोखला कर रही है। जब जड़ ही खोखली होगी तो पेड़ फलेगा फूलेगा कहाँ से?

शिक्षा व्यवस्था
शिक्षा व्यवस्था भी बच्चों के पालन-पोषण से जुडी कड़ी है। आज की शिक्षा व्यवस्था महज कागजी प्रमाण-पत्र प्राप्त कर के इंसान के ATM बनने का साधन बनकर रह गई है। शिक्षा के मुख्य उद्देश्य क्या होने चाहियें? बच्चे का शारीरिक व मानसिक विकास हो, निर्णय शक्ति विकसित हो, संकट के समय स्वस्थता के कार्य करने की क्षमता बढे, परिवार समाज व  के हित में कार्य करने व जीने की भावना बढे। कानून का  करना सीखें। ये सब शिक्षा के मुख्य उद्देश्य होने चाहियें। कथित रूप से आज भी है। मगर .........  वास्तविकता क्या है। सब जानते हैं।

हालांकि  इस में व्यवस्था-तंत्र का भी पूरा हाथ है। जो तंत्र वाहियात विज्ञापनों को प्रसारण की अनुमति देती है। उसे कैसे जिम्मेदार ना मानें? कुछ दिन पहले एक विज्ञापन देखा था। वो ती टी 20-20 का विज्ञापन था। उस में आज का नया कहा जानेवाला रोक़ स्टार कहता है "ये टी 20 क्रिकेट है। ये ना तमीज से खेला जाता है ना तमीज से देखा जाता है। बदतमीजी को बढ़ावा देनेवाले विज्ञापन को प्रसारण की मंजूरी देनेवाले 'एडमिनिस्ट्रेशन" के इरादे क्या हैं? क्या ये भी एक प्रकार को वैचारिक दीमक नहीं जो व्यवस्था-तंत्र को लग गई है?

यहाँ एक छोटी सी घटना का उल्लेख करना चाहता हूँ।
कोई दो सवा दो साल पहले मैं किसी कार्य के सिलसिले में दूरदर्शन केंद्र गया था। तब वहां एक कार्यक्रम की शूटिंग हो रही थी। कार्यक्रम का विषय माताओं और बच्चों के बीच खड़े होनेवाले प्रश्नों का था। मंच पर दो तीन कथित [मैं उन्हें कथित ही कहूँगा] एक्सपर्ट बैठे थे। करीब 15-20 स्त्रियाँ कार्यक्रम में दर्शकों के रूप में हिस्सा ले रही थी। चर्चा के दौरान एक स्त्री ने प्रश्न पूछा " हमारे बच्चों को कौन 'डिश' बहती है? वो क्या चाहता है? उसे क्या अच्छा लगता है?। ये सब हम कैसे जान सकते हैं?

मुझे आश्चर्य हुआ। एक माता को अपने बच्चे के बारे में जानने के लिए एक्सपर्ट का सहारा लेना पड़े। समाज के लिए इस से ज्यादा दयनीय परिस्थिति क्या होगी? ये शायद सब से भयंकरतम दीमक है। जो समाज रूपी वृक्ष को लगी है।

ता-18-11-2012 के दिन गुजराती दैनिक 'जयहिंद' में मेरी कॉलम 'अर्ज़ करते हैं' में छपे मेरे लेख का हिंदी अनुवाद
कुमार अहमदाबादी/ अभण अमदावादी


Friday 12 October 2012

भीड़


खादिमों की है न सरदारों की भीड़
अब कबीले में है बीमारों की भीड़
हुमा कानपुरी
हुमा कानपुरी उर्दू हिंदी के सशक्त शायर है। ग़ज़ल विधा के माहिर हैं। प्रस्तुत ग़ज़ल के मत्ले में शायर फरमाते हैं। आजकल सेवक [स्वयं सेवक] कहीं दिखाई नहीं देते। उसी तरह सेवा कार्यों की अगवाई करनवाले [सरदार] भी दिखाई नहीं देते। सिर्फ 'बीमार' लोग दिखाई देते हैं। सच्चे मन से निस्वार्थ भाव से सेवा कार्य करने में किसी की रूचि नहीं

है। सेवा के बहाने हर कथित सेवक स्वार्थ साधने में लगा है। इसी तरह से निस्वार्थ भाव से सेवा कार्यों की की स्ग्वानी करनेवाले या आर्थिक मदद करनेवाले भी जैसे लुप्त हो गए हैं। कभी कोई हिम्मत करता भी हैं तो स्वार्थी लोग करने नहीं देते। उसें भी अपनी तरह 'कीचड़' में सराबोर करने के लिए तत्पर रहते हैं। या उस के कन्धों पर अपनी बंदूक फोड़ लेते हैं।

यहाँ बीमार शब्द काबिले गौर है। शायर ने अपनी तरफ से बीमारी का खुलासा नहीं किया। पर आज जहाँ देखो जिसे देखो। बीमार नजर आता है।कोई मानसिक तौर नपर तो कोई शारीरिक तौर पर, कोई आर्थिक तो कोई प्रादेशिकता की बीमारी से ग्रसित है। इस शेर मे३ प्रयोग किये गए कबीले शब्द का अर्थ भी विस्तृत है। आज जब पृथ्वी को ग्लोबल विलेज कहा जा रहा है तो कबीले का अर्थ भी वैश्विक है।



सख्तियाँ कुछ कम हुईं तो देखना
बढती जाएगी गुनाहगारों की भीड़
कानून के पालन के जब जब नरमी आती है। गुनाहगारों के हौसले में बढ़ोतरी होती है। कानून का शासन व पालन कभी ढीले नहीं होने चाहिए। सच कहिये क्या आपको नहीं लग रहा कि संसद और ताज होटल पर के हमलों के आरोपियों को सजा देने में देर हो रही है? और इसी देर के कारण पडोशी देश में बैठे हमले करवानेवालों के हौसले बढ़ रहे हैं। अगर शुरू से सख्ती कि जाती तो आज ये नौबत न आती। यहाँ मुझे अहमदाबाद के स्थापक अहमदशाह बादशाह के साथ जुडी कथा याद आरही है। कहा जाता है कि उस के बत्तीस साल के शासन के दौरान सिर्फ दो खून हुए। दोनों कातिल पकडे गए। उस में एक बादशाह का दामाद था। बादशाह ने उसे भी फाँसी कि सजा दी। ये भी कहा जाता है कि उसे फाँसी देने के बाद दो दिन तक लाश उतारी नहीं गई। वो इसलिए कि प्रजाजनों में यह सन्देश जाये कि बादशाह न्यायप्रिय है। गुनाहगार चाहे कोई भी ही उसे बक्शा नहीं जायेगा। दूसरी और आज के दामाद क्या क्या प्राप्त कर सकते हैं? आप जानते हैं।


पांव धरने को जमीं है ही कहाँ?
हर जगह है हम से बंजारों को भीड़
विचरती जाती के लोग बंजारे कहलाते हैं। हिंदी में बंजारा और गुजराती में वणजारा शब्द है। बंजारे एक स्थान पर ज्यादा समय टिककर नहीं रहते। स्थान बदलते रहते हैं। हालाँकि आज कल इस तरह का स्थानांतरण कम होता है।

शायर ने उच्च श्रेणी का विचार पेश किया है। इस जगत, इस पृथ्वी पर आत्मा रूपी बंजारे आते है चले जाते हैं। कोई बंजारा कुछ घटे तो कोई बरसों तक यहाँ निवास करता है। आत्मा रूपी बंजारा एक शरीर से दूसरा शरीर, दूसरे से तीसरा यूँ स्थान परिवर्तन करता रहता है। पृथ्वी पर बंजारों का आवागमन जारी है। बंजारे आते हैं जाते हैं फिर भी भीड़ बढ़ रही है। क्यों? शायद इसलिए कि बंजारों को बसने के लिए मानव देह सब से ज्यादा उपयुक्त लगता है अन्य जीवों का नहीं।


जाइएगा अब  कहाँ बचकर 'हुमा'
हर कदम पर है सितमगरों कि भीड़
कदम कदम पर जब सितमगर मौजूद हो तो कोई कहाँ तक बच सकता है? यूँ समझो कि सौ नहीं हजार नहीं बल्कि लाख में निन्यानवे हजार नौ सौ निन्यावे जुल्मी हो तो बाकि बचा एक शख्स कहाँ तक बचेगा?
कुमार अहमदाबादी
 
ता.09/09/2012 के दिन गुजराती अख़बार 'जयहिंद' में मेरी कोलम 'अर्ज़ करते हैं' में छपे लेख का हिंदी भावानुवाद
मैं 'अभण अमदावादी' के नाम से कोलम लिखता हूँ
 

Wednesday 5 September 2012

छल की वेदना

हमारे दर्द का कीजे भले न हल बाबू
जता के प्यार मगर कीजीए न छल बाबू
                             भगवानदास जैन
        जैन साहब की ग़ज़लें बहुत मार्मिक व प्रासंगिक होती है। उन की ग़ज़लों में वर्तमान व्यवस्था की कमजोरीयों प्रति आक्रोश और शोषितों के लिए सहानुभूति होते हैँ।
        ये लगाल गाललगा गालगाल गागागा मात्राओँ में लिखा गया अर्थपूर्ण व बेहतरीन शेर है। शेर कहता है कि आप चाहे मेरी समस्या का समाधान न करें; दर्द का निवारण न करें: पर सहानुभूति दर्शाने के बाद छल मत करना। इन्सान को प्रेम न मिले तो उतनी तकलीफ नही होती; जितनी छल से होती है। इन्सान अभाव के शून्य को सह सकता है। छल से ठगे जाने की पीड़ा को सह नहीं सकता। पहले से घायल दिल को ठगना गिरते को लात मारने जैसा हो जाता है।

गुजराती अखबार जयहिन्द में मेरी कॉलम 'अर्ज करते हैं' में ता.25।09।2011 को छपे लेख के अंश का अनुवाद
कुमार अमदावादी
अभण अमदावादी

मनचाहा अर्थ

हम देखते सुनते आये हैं की हर एक प्रेम कहानी किसी फिल्म या गीत से समानता रखती है। परदे की कहानी के नायक नायिका वास्तविक कहानी के नायक नायिका को देखकर सोचते होंगे की हमारे डायरेक्टर को इन की कहानी से ही आइडिया मिला है। ये तो हुबहू वही घटनाएँ हैं जो हमने परदे पर जीवंत है। वही संवेदनाएं हैं जो केमरे के सामने प्रदर्शित की है।

एक निराला दिन आज भी मेरी यादों के उपवन को महका रहा है। उस दिन की यादें मेरे दिलो-दिमाग को एसे महकाती है। जैसे चन्दन की खुशबु वातावरण को महकाती है। उस दिन मैं मित्र-वृन्द के साथ मूवी देखने गई थी। उस मूवी को शहर के प्रतिष्ठित रेडियो जोकी ने चार सितारे दिए थे। शहर के नए मोल में स्थित मल्टीप्लेक्ष में प्रदर्शित वो मूवी उन दिनों चर्चाओं का केंद्र थी। मोल पहुंचे तो पता चला मोल की सातवीं मंजिल पर है। लिफ्ट में जाना पड़ेगा। औ....र मेरे तिरपन कांपने लगे।
सच पूछो तो कहानी वहीँ से शुरू हुई थी।
मुझे लिफ्ट से बहुत डर लगता है। उस दिन भी यही हुआ। मुज पर डर के काले बादल मंडराने लगे। मैंने अपरोक्ष रूप से एकाध बार दबे स्वर में सरकती सीड़ियों [एस्केलेटर यार] से चलने का प्रस्ताव रखा। हालांकि मैं खुद भी जानती थी मेरा प्रस्ताव कमजोर है। प्रस्ताव रखते वक्त मुझे पता न था। मालिकों के 'बिजली बचाओ' अभियान के कारण एस्केलेटर्स बंद है। वर्ना मैं प्रस्ताव ही न रखती। सीडियां चड़ना पैरों का दम निकालनेवाली प्रक्रिया थी। पर मेरे पास लिफ्ट द्वारा जाने के लिए हाँ कहने के आलावा कोई चारा न था।
मेरे मित्र मेरे मन में चल रहे विचारों से अन्जान थे। लिफ्ट के दरवाजे बंद होते ही मेरे मन में डर का एवरेस्ट बनना शुरू हो जाता है। भय के महासागर में सुनामी उठनी शुरू हो जाती है। लिफ्ट के दरवाजे सक्करपारों की डिजाइनवाले हों तो; बाहर की दुनिया थोड़ी बहुत ही सही पर दिखती है। हवा का आवागमन सरलता से होता है।
नई तरह के दरवाजे बाहर की दुनिया से आँखों का संपर्क 'कम्युनिस्टों' की तरह काट देते है। वे मुझे बहुत डराते हैं। हाँ डर ने एक अच्छा काम किया है। मुझे बंद लिफ्ट के दरवाजे खोलने की कला में माहिर बना दिया है। दरवाजे बंद होने के बाद अगले 'पड़ाव' तक पहुँचने तक लिफ्ट में लगा आईना देखने की आदत मुज में घर कर गई है। उस दिनवाली लिफ्ट में दाईं ओर रुपहले रंग का स्विचबोर्ड था। कोमल बदन जैसा सोफ्ट-टच स्विचबोर्ड। मनचाही मंजिल पाने के लिए पुश बटन दबाइए; मंजिल ओर गति शुरू कीजिये। सरकते कमरे के कार्यान्वित होने के बाद स्विचबोर्ड के ऊपर लगा सुचना पटल [अरे, इंडिकेटर भाई] पर आनेवाली या आ चुकीं मंजिलों को देखना मुझे बहुत बोर भी करता है और परेशान भी। जैसे ही लिफ्ट ने 'यात्रा' शुरू की। मैं मन में हनुमान चालीसा का पाठ करने लगी।

मगर...............अरे रे रे रे रे रे रे ये क्या हुआ? लिफ्ट ऊपर जाने की बजाय नीचे क्यों जाने लगी? ग्रे रंग का यूनीफार्म पहने लिफ्ट-मेन से पूछा तो मालूम हुआ। पार्किंग फ्लोर से भी यात्रियों को लेना था। मैंने एक लम्बी आह भरी। मेरी यात्रा सात से आठ मंजिल की हो गई थी। चंद सेकंडो या मिनिटों की त्रासदी बढ़ गई थी। लिफ्ट-मेन ने पार्किंग फ्लोर से भेड़-बकरियों की तरह यात्रियों को लिफ्ट में ठूँसा। मुझे लगा कहीं वो पागल तो नहीं हो गया है।

सबसे पहले प्रवेश करनेवालों को सब से पीछे धकेल दिया गया था। भीड़ ने मेरे डर को और बढ़ा दिया। यूँ समझिये " गिरते को लात लगी"। लाख कोशिशें कर के भी विचारों को नकारात्मक होने से न रोक सकी। मन पर नकारात्मक विचारों की विजय-यात्रा कूच करने लगी। क्या हो गर बिजली चली जाये? लिफ्ट बिगड़ जाये? दो मंजिलों के बीच अटक जाये? एन वक्त पर सिक्योरिटी एलार्म नाकाम हो जाये? जनरेटर्स सही ढंग से कार्यान्वित होंगे? लिफ्ट बंद होने के बाद बाहर निकलने तक का समय कैसे बितेगा? लिफ्ट में इतने सारे लोग हैं कहीं साँस लेने में तकलीफ हुई तो?

ललाट पर पसीने की बूंदे छलकने लगी। चंद ही मिनिटों में वे नदी बनकर बहने लगी। छत में लगा पंखा अपना कर्तव्य निभा रहा था। लगा मुझे चक्कर आ रहे हैं। पंखा नहीं बल्कि मेरे दिलो-दिमाग घूम रहे हैं। लिफ्ट में बाईं ओर फ्रेम में कैद कागज पर लिखी सूचनाएं एवं आपातकालीन टेलीफोन नंबर दिमाग में 'फीड' करने लगी। क्या पता कब इन नंबरों पर फोन करना पड़ जाये? हाथ बेहद चुस्त जींस की जेब में चले गए। जेब में रखे आज-कल की लड़कियों जैसे स्लिम ट्रिम मोबाईल को मजबूती से थाम लिया। आपात समय में वही संकट-मोचन बननेवाला था। अपनी दूरदर्शिता पर यानि मोबाईल की बैटरी फुल चार्ज कर के घर से निकलने के निर्णय पर गर्व हुआ।

आह! इतनी देर क्यों लग रही है? पल पल भरी लगने लगा। लगा शायद सूर्य की गति धीमी हो गई है। इसी वजह से समय-चक्र धीमे चल रहा है। सातवीं मंजिल पर ही तो जाना था। अब तक मंजिल आई क्यों नहीं? साँस अटकने लगी। मैं डर के काल्पनिक वन में बेतहाशा भटक रही थी। इस दौरान पता ही न चला की मैं विचारों से पीछा छुड़ाने की गरज से से कब 'उस' के पास खिसक गई। उस की मजबूत भुजाओं पर अपना सर रख रख दिया। मेरे लम्बे तीखे नाख़ून उस की भुजा में गहरे तक 'घुसपैठ' कर गए। वो भारत की तरह चुपचाप घुसपैठियों को सहता रहा। मेरे बालों में स्नेह से भरपूर हाथ फिराता रहा। चंद मिनिटों बाद वो धीरे से मुझे सांत्वना देते हुए बोला " मैं हूँ ना, तुम्हारे साथ। परेशानियों को इस तरह अपने आप पर हावी मत होने दो। मैं तुम्हें कुछ..... नहीं होने दूंगा। दो-चार लम्बी व गहरी सांसे लो। सबकुछ ठीक हो जायेगा। मुज पर विश्वास है ना?"

पता नहीं क्या जादू था उस के शब्दों में। भीतर का सारा कोलाहल स्विच से ऑफ़ होते बल्ब की तरह 'बुझ' गया। विचार स्थगित हो गए। दिलो-दिमाग तनावमुक्त हो गए। औ....र मंजिल आ गई।
फिर संयोग भी अदभुत घटा। मूवी की नायिका भी बिलकुल मेरे जैसी समस्याओं में घिर गई। उस द्रश्य को देखकर मैं पानी पानी हो गई। जिस पल मैं पानी पानी हो रही थी। उसी पल उस ने मुझे देखा। हम दोनों की नजरें मिली। वो प्रेमपूर्ण अंदाज में हँस पड़ा। उस के हास्य ने मेरे भीतर हलचल मचा दी। एक पल के सौंवे हिस्से में मेरी दुनिया बदल गई। मुज में 'मैं' लुप्त हो रहा था। 'हम' आकर ले रहा था। साहित्य की भाषा में कहूँ तो 'मैं किसी पुराने जर्जर ढांचे की तरह इतिहास में गुम हो रहा था। जब की 'हम' नए बन रहे स्थापत्य की तरह इतिहास में प्रवेश कर रहा था। सबकुछ असामान्य लगने लगा था। आसमान का रंग आसमानी नहीं बल्कि गुलाबी दिखने लगा था। तन-मन की बांसुरी पर उस की सांसे टकरा रही थी। तन-मन से उठ रहा संगीत मेरे अस्तित्व को सुरीला कर रहा था।
मन सर र र र र र करता फिसल गया।
उस के ह्रदयद्वार पर दस्तक देने लगा।
धक् धक् धक् धक् धक् धक् धक्........
संवेदनाएं मासूम बच्चे की तरह उछलने लगी।
चंद पलों बाद.......
कुर्सी के वेल्वेट से सजे हत्थे पर बेफिक्री से रखे मेरे हाथ पर उस ने अनजाने से हाथ रखा तो हाथ वापस खिंच गया। दिल जोर से धड़क गया। हालाँकि उस की हरकत अच्छी लगी थी। दिल...उफ़... कमबख्त ये दिल हर बार जोर जोर से धड़ककर बेकाबू हो जाता है। पर लज्जा भी कोई चीज है! जब की मन सोच रहा था स्पर्शानुभव फिर से कैसे मिले? मन खुद को उलाहना भी दे रहा था। जब हत्थे पर 'पाणिग्रहण' का सुख मिल रहा था तो खोया क्यों? मन मस्तिष्क को कह रहा था तुने हाथ को वापसी का आदेश क्यों दिया? नजर एक बार फिर हत्थे पर गई तो देखा हाथ नहीं था। मन में एक आस बाँधकर मैंने अपने हाथ फिर वहां रख दिया।
परदे पर चल रहे चलचित्र से ध्यान पूरी तरह हट चुका था। परदे के सामने नई कहानी जन्म ले रही थी। ये सब क्या? क्यों? समज से बाहर था। उस वक्त एक ही ध्येय था। अर्जुन-लक्ष्य की तरह् उस का स्पर्श। मैं मीठी समस्या के हल के बारे में सोच रही थी की लक्ष्य प्राप्ति हो गई। मन मयूर झूम उठा। लक्ष्य प्राप्ति की सुखद अनुभूति में खोने लगी। अचानक उस के शब्दों ने कर्ण-प्रवेश किया। शब्द थे "आओ बाहर चलते हैं। कोफ़ी या पोपकोर्न लेकर आते हैं। एक बोरिंग गीत आनेवाला है।" उस ने स्वाभाविक बात कही थी। मेरे दिल में पनप रहे भावों ने 'मनचाहा' अर्थ निकाला। कुछ सोच के मन ही मन शरमाई, हँसी भी सही। सोचा 'प्रणय-आग' उस तरफ भी लगी है। पूरा चलचित्र घटनाओं का मनचाहा अर्थ निकालते हुए देखकर भी नहीं देखा।
चलचित्र पूरा होने पर बाहर निकले। संध्या अस्त होने की तैयारी में थी। निशा का उदय हो चुका था।
एक अकेली लड़की और रात का समय..
परिस्थिति भारतीय समज की सोच के विपरीत थी। उस ने प्रस्ताव रखा "चलिए, आप को घर छोड़ दूँ। मैं चमकी। प्रश्न उभरा "क्या जान बूझकर दिया गया न्यौता है? ताकि कुछ और पल मेरे साथ बिता सके? दूसरा 'चिंतन भी उभरा " या मेरा ही मन बन्दर की तरह उछलकूद कर रहा है? मनचाहे अर्थ निकाल रहा है?
मगर........

मनचाहे पल मुझे भी तो चाहिए थे। मैं क्यों इंकार करूँ? लक्ष्मी के आने पर मुंह धोने जाना कहाँ की समजदारी है? ये सब मैं तब सोच रही थी जब की मैं गौर कर चुकी थी। प्रस्ताव रखने के बाद उस ने मित्रों की ओर 'विजयी मुस्कान' उछाली थी। मगर, मनचाहा साथ पाने की तमन्ना इतनी तीव्र थी की अर्थ-घटनों की गहराई में जाना उचित न लगा। मनचाहा साथ मिल रहा था सो पाने की दिशा में आगे बढ़ गई।
गुजराती कहानी 'मनगमतुं' का अनुवाद
मूल लेखिका > स्नेहा पटेल "अक्षितारक"
अनुवादक > महेश सोनी

Thursday 30 August 2012

माँ का असर [तमाम माताओं को समर्पित]

ये सन 2006 की घटना है। उस वक्त 2001 के भूकंप की यादें आज से ज्यादा ताजा थी। 2005 में हम पुनः दसवीं मंजिल पर रहने लगे थे। 2006 के मार्च 6 व अप्रैल 7 को भूकंप के आफ्टर शॉक आए जो काफी तगडे थे। मैं विचलित हो गया। दूसरे झटके के दूसरे दिन छपी खबर ने आग में घी डालने का काम किया। खबर ये थी कि गुजरात में नई फॉल्ट लाईन सक्रिय होने के कारण कभी भी 2001 जैसा भीषण भूकंप हो सकता है। बस फिर क्या था मन में निरंतर विचारों का तूफान चलने लगा। आप समझ सकते हैं। जिस ने 2001 का भीषण भूकंप दसवीं मंजिल पर झेला हो उस पर एसी खबर सुनकर क्या बीत सकती है? जब दिमाग विचार करते करते थक जाता तो मुश्किल से घंटे दो घंटे नींद आती। दो दिन ये स्थिति रही। विचारोँ की प्रक्रिया लगातार चलती रहती। मुझे लगा एसे ही चलता रहा तो शायद मानसिक स्थिति बिगड़ जाए। क्या करूँ? समस्या से कैसे निपटूँ? ये विचार भी चलते थे। एक विचार उभरा 'जहाँ समस्या हो वो जगह छोड़ देनी चाहिए।' ठीक है छोड़ दूँ पर यूँ खड़े पैर जाऊँ कहाँ? फिर विचार उभरा माँ के घर 2001 में भी तो पंद्रह दिन वहीं रहा था। माँ के घर गया। माँ पिताजी भाई सब से विचार विमर्श के बाद उसी दिन हम माँ के घर रहने चले गए। वहाँ भी रात को सोया तब तक वैचारिक तूफान चल रहा था।

एक के बाद एक विचार आ रहे थे जा रहे थे। यूँ समजो विचारों के रेगिस्तान में भटक रहा था।

अचानक.....
एक पुरानी फिल्म का मशहूर संवाद याद आया। संवाद के अनुसंधान में उभरे विचार ने रणद्वीप पर पहुँचा दिया। विचारों का तूफान शांत हो गया। ईतना शांत की उस के बाद जो नींद आई वैसी पिछले कई वर्षों में नहीं आई थी।

मन, मस्तिष्क को 'शांत व रिलेक्ष' करनेवाली प्रक्रिया जिस फील्म से शुरु हुई वो थी 'दीवार', संवाद था 'मेरे पास माँ है'। संवाद के बाद मन में उभरा विचार था 'आज मुझे कुछ नहीं होगा क्यों कि 'मैं माँ के पास हूँ, माँ के घर में हूँ, माँ के दामन में हूँ।"
दूसरे दिन उठते ही जो गीत लिखा वो ये था।



 माँ का घर...
माँ का घर छूटा है जब से।
जग सारा रुठा है मुज से।
घर क्या छूटा दुनिया छूटी।
सुख दुख और खुशीयाँ रुठी।
सच कहता हूँ मैं ये माता।
रुठ गया है मुज से विधाता।
 
माँ .... मे........री माँ
माँ.... तू... है कहाँ
बाग रूठा, माली रूठा, गुलशन के सब फ़ूल रूठे
अपने रूठे, बेगाने भी, रूठ गए है अनजाने भी..माँ
सूरज रूठा, चन्दा रूठा, नभ के सारे तारे रूठे,
धरती रूठी, आसमाँ भी, रूठ गया है वो खुदा भी...माँ
संध्या रूठी, उषा रूठी, घडी के सारे कांटे रूठे,
रात रूठी, दोपहर भी, रूठ गई है देखो हवा भी,.......माँ
आग रूठी, पानी रूठा, साराजीवन-चक्र रूठा
मौत रूठी, जिंदगी भी,रूठ गई है बंदगी भी .. .......माँ
 
महेश सोनी/ कुमार अहमदाबादी

स्वप्न संकेत पार्ट २

 मेरी पोस्ट 'स्वप्न का इशारा' पढ़कर एक कमेंट्स ये हुई की "एसा नहीँ हो सकता की हमारे अंतरमन में कोइ बात बैठ गई हो और वो स्वपन के रुप मे उभर के आती हो, फिर कोइ बडी घटना घटती है और हमारा मन उस घटना और स्वपन के बीच सटीक मेल बिठाने के लिये तर्क रखता हो, और हम उसे पूर्वभास स्वपन नाम दे देते हों।"     हम किसी बात या मुद्दे में डूब जाते हैं या गहरी शिद्दत से उस के बारे में सोचते हैं तो उस से संबंधित व्यक्ति या घटना हमें न सिर्फ रात में बल्कि दिन में भी दिखने लगते हैं। लगे रहो मुन्नाभाई में मुन्नाभाई को ईसी वजह से गाँधीजी दिखते हैं। एक बहुत पुरानी फिल्म 'यही है जिन्दगी' में भी संजीवकुमार कृष्ण से उसी तरह बातें करते हैं जैसे मुन्ना गाँधीजी से करता है।


ये उन दिनों की बात है। जब मैं ग़ज़ल 'मंजर एक दिन' लिख रहा था। मैंने जितेंद्र अढिया की किताब 'प्रेरणा नुं झरणुं' पढ़ी है। जिस में मन के कार्य व कार्यशैली के बारे में काफी जानकारी दी गई है। मन से कार्य करवाने की तकनीक दी गई है। ग़ज़ल लिखने से कुछ महीने पहले मैंने वो किताब पढ़ी थी। सो मन से कार्य करवाने के प्रयोग कर रहा था। गजल के कुछ शेर लिख चुका था। ग़ज़ल का मत्ला था।

हम जमाने को दिखाएँगे वो मंजर एक दिन
मुट्ठियों में कैद कर लेंगे समंदर एक दिन


ईन परिस्थितियों की पश्चाद भूमिका में मुझे स्वप्न संकेत का अनुभव हुआ।


ये अनुभव उस दिन हुआ। जिस दिन मैंने न्यूज चैनलों पर एक रातनीतिक पक्ष के कार्यकर्ताओँ को उत्तर भारतीयों के विरुद्ध कार्रवाई करते देखा। मैंने दिनभर बारबार वे द्रश्य देखे थे। जिस में कार्यकर्ता तोड़फोड कर रहे थे। लोगों को पीट रहे थे। आगजनी कर रहे थे। वो सारे द्रश्य मुझे बहुत व्यथित कर रहे थे। लोकतंत्र के कमजोर पक्ष को उजागर कर रहे थे। व्यवस्था तंत्र या तो जानबूझकर सख्त कदम नहीं उठा रहा था, या ईतना कमजोर था कि उठा नहीं पा रहा था।


दिल ने कहा "ग़ज़ल मेँ ईस घटना से जुड़ा शेर लिखूँ।" उसी दिन रात को सोते वक्त जब तक नींद आई तब तक मन को (प्रेरणा नं झरणुं किताब में दी गई सूचनाओँ के अनुसार) आज्ञा देता रहा कि 'मुझे जो शेर लिखना है उस के बारे में कुछ संकेत दो। कोई एसा संकेत दो कि शानदार शेर अर्थपूर्ण शेर लिखूँ।"

दोस्तों मन ने संकेत दिया और क्या खूब संकेत दिया। मुझे रात को स्वप्न आया। स्वप्न में टीवी पर जो देखे थे वही द्रश्य दिखाई दिये। वही तोड़फोड़, आगजनी, परप्रांतियोँ की पिटाई करते राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता पर................... कार्यकर्ताओँ के चेहरे? कार्यकर्ताओँ के शरीर तो ईन्सानों के थे पर चेहरे ईन्सानों के नहीं थे। मन ने अलग चेहरों के द्वारा संकेत दिया था। चेहरे बंदरों के थे। सुबह उठते ही मैंने शेर लिखा, 



भीड़वादी राज करवाता है कितनी तोड़फोड़
सच कहे इतिहास सचमुच हम थे बंदर एक दिन

ये वो अनुभव है जिस के बारे में मैं ये नहीं कह सकता की किसी स्वप्न का मैंने किसी घटना के घटने के बाद संबंध जोड़ दिया। ईस विषय में मन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है। हम जो देखते हैं सोचते हैं समझते है। उन सब के आधार पर मन अपनी एक अलग दुनिया का निर्माण करता है। मन की दुनिया का स्वप्नोँ से गहरा रिश्ता है। मगर एसा भी नहीं है कि स्वप्न सदा कुछ न कुछ संकेत करते ही हैं। इस विषय में सब की अपनी अपनी राय होती है। कोई किसी को चेलेंज नहीं कर सकता।
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महेश सोनी 
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स्वप्न संकेत

कुछ दिनों पहले मैंने 'विद्वान स्वप्न' पोस्ट लिखी थी। जिस में लिखा था कि कुछ स्वप्न हमें भविष्य संबंधित संकेत देते हैं। आज मैं मेरा अनुभव बाँट रहा हूँ। ये अनुभव भूकंप के दिन यानि ता.26।01।2001 के दिन हुआ था।

स्वप्न मुझे सुबह 4 बजे के आसपास आया था। स्वप्न में मैँने मेरी दादी की अर्थी का दृश्य देखा। दृश्य में मुझे अर्थी को सिर की ओर कंधा देनेवाले दो शख्स दिखाई दे रहे थे। असामान्य बात ये थी कि वे दोनों स्त्रीयाँ थी। एक मेरी बहन व दूसरी साली थी। जहाँ तक मुझे पता है किसी भी भारतीय समाज में महिलाओं द्वारा कंधा देने का रिवाज नहीं है। मैं अर्थी के साथ चल रहा था। अचानक लगा कि जैसे मेरी दादी ने अर्थी में सोये सोये मुज से कहा "याद रखना मैं तो जा रही हूँ पर तुझे सोने से ज्यादा कुछ देकर जा रही हूँ।" और मेरी आँख खुल गई।
 मैं सुबह 8:45 बजे यह स्वप्न डायरी में लिखने के लिए बैठा। छट्ठी या सातवीं पंक्ति लिख रहा था की भूकंप हुआ। चूँकि मैं दसवीं मंजिल पर रहता हू। घर से बाहर जाने के सारे रास्ते बंद थे। लिफ्ट में जाना नहीं चाहिए। ज्यादा मंजिल हो तो सीडीयों में भी नहीं जाना चाहिए। सब से पहले सीढ़ियों के टूटने का खतरा रहता है। सो मैं, गौरी (मेरी पत्नी) व बेटी अर्चना एक दूजे को पकड़कर ड्रॉईँग रूम के कोने में बैठ गये। भूकंप के बढ़ते कंपन को महसूस किया। एसा लग रहा था हम बहुत बड़े झुनझुने में बैठे हैं। कोई झुनझुने को जोर जोर से हिला रहा है। भूकंप के हर 'झोले' में लग रहा था कि अब गये की तब गये। छत पर लगा पंखा दो या तीन बार छत से टकरा गया। फिर कंपन कम होने लगा। भूकंप के रूकने पर पापा के घर जाने के लिए रवाना हुए। पूरा टावर खाली हो चुका था। वैसे भी उस वक्त टावर में छट्ठी मंजिल के बाद 10वीं पर हम ही रहते थे। बीच की मंजिलोँ पर कन्स्ट्रक्शन का कार्य जारी था। टावर में सिर्फ पंद्रह परिवार ही रहते थे। पापा के घर जाते हुए सपना याद आया। सपने में दादी की अर्थी से निकले शब्द याद आये। मुझे सोने से ज्यादा क्या मिला है समझ में आया। हम तीनों को नवजीवन मिला था।


आज भी जब वो घटना याद करता हूँ तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं। कभी कभी सोचता हूँ 'एक पर एक फ्री' का मार्केटींग का दौर है। उपरवाले ने मुझे 37 साल (उस वक्त मेरी आयु थी) पर कितने फ्री साल दिए हैं?

हाँ एक स्वप्न संकेत का बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दा रह गया। स्वप्न में दो स्त्रीयाँ अर्थी को कंधा दे रही थी। उस भूकंप से बहुत जानहानी हुई थी। कई कस्बों, गाँवो में स्त्रीयोँ ने अर्थीयोँ को कंधा दिया था। एसा होगा ये संकेत स्वप्न ने मुझे दिया था।ये था स्वप्न के पूर्व संकेत का मेरा अनुभव, जो स्वप्न के पूर्व संकेतों की बात निकलने पर दोस्तों से बाँटने का मन होने पर आप सब से बाँटा है।और कोई माने या ना माने मैं निश्चित रुप से मानता हूँ कि स्वप्न पूर्व संकेत देते हैं।
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महेश सोनी



बस की आत्मकथा

मैं सरकारी परिवहन विभाग की बस हूँ। आज सुबह मैं अहमदाबाद शहर के इन्कम टेक्स चौराहे पर खड़ी थी। उस वक्त मेरे पास एक नई नवेली दुल्हन से बस आकर रुकी। उसने मुज पर आगे से पीछे तक नजर घुमाई और व्यंगात्मक ढंग से हँस पड़ी। मैं आज ऐसी हूँ की मुज पर कोई न हँसे तो अचरज होता है। पिछले चक्के के बाद का ज्यादातर हिस्सा निकाल दिया गया है। खिडकियों से ऊपर का हिस्सा, यात्रीयों के बैठने की सीटें, छत वगैरह निकाल दिए गए है ।अब छत सिर्फ चालक-कक्ष के ऊपर बची है। पहले मैं यात्रियों को लाती ले जाती थी। अब पानी की टंकी ढोने का कार्य करती हूँ।
 पर जब मेरी 'जात-बस' [क्यों जी! जात-भाई या जात-बहन कहने का हक़ सिर्फ तुम इंसानों का है?] ही जब व्यंगात्मक ढंग से हँसी तो कलेजा तार तार हो गया। पर मैं कर भी क्या सकती हूँ? हाँ नई नवेली बस को देखकर मैं इतिहास में चली गयी। आहा हा हा हा ........ क्या सुनहरे दिन थे। फेक्टरी में कई 'चोटें' सहकर सुन्दर सजीला रूप पाकर मैंने बाहर की दुनिया में कदम रखा था। तब मन में कैसे कैसे लड्डू फूट रहे थे। मन में कैसे हिलोळ उठ रहे थे। मुझे एएमटीएस द्वारा खरीदकर परिवहन विभाग के काफिले में शामिल कर लिया गया। मैं जब पहली बार अहमदाबाद आई थी तो इस शहर को देखकर भौंचक्की रह गयी थी। मुझे लगा था कितना आआआआ बड़ा शहर है। हालांकि अब तो उस से दस गुना बड़ा है।
  मैं अहमदाबाद की सड़कों पर दौड़ने लगी। 'कर्तव्य-पथ' पर दौड़ने के लिए रोज सुबह वक्त पर हाजिर हो जाती। देर रत तक कर्तव्य-पथ पर दौड़ती थी। यात्रियों को एक स्थान से दुसरे स्थान तक पहुँचाती। अहमदाबाद बहुत सुन्दर व हराभरा शहर है। यहाँ के लोग भी संस्कारी व सज्जन है। मगर ऐसा लगता है की शहर को कभी कभी 'पागलपन' का दौरा पड़ता है। उस वक्त यहाँ के लोगों में एक अजीब उन्माद फ़ैल जाता है जब धार्मिक दंगे फ़ैलते है। दंगो के दौरान हम बसों को बहुत सहन करना पड़ता है। दंगाई तोड़-फोड़ करते हैं, जलाते हैं, सीटें को तार तार कर देते हैं। सच कहूँ; 'बलात्कार' का शिकार सिर्फ औरतें ही नहीं बसें भी होती हैं। कभी कभी मन होता है की मैं शहर के निवासियों से पूछूं की तुम्हारी आपसी लडाई में बसों पर क्यों कहर बरपाते हो?
 अहमदाबाद ने मुझे खुशियों के पल भी दिए हैं। 1892 में बने अहमदाबाद के पहले पुल एतिहासिक एलिसब्रिज की दायें बाएं बने नए पुलों का जब उद्घाटन हुआ; तब दायीं ओर बने पुल से गुजरनेवाली पहली बस मैं थी। उस दिन एलिसब्रिज का सिंगार देखने लायक था। एसा लगता था जैसे बुढ़ापे में जवानी फिर से आ गयी हो। सच कहूँ उस दिन मैं उस पर मोहित हो गयी थी। मैंने गाँधी ब्रिज, सरदार ब्रिज व सुभाष ब्रिज को भी बनते हुए देखा है।

जिस तरह शहर में बदलाव आया है। बसों में भी आया है।आज की बसें कैसी सुन्दर एवं सुविधायुक्त होती है। मैं जब कार्यरत हुई थी बसों में बिजली के लिए बल्ब इस्तेमाल होते थे। अब ट्यूब लाईट होती है। मैं 'लाल बस ' कहलाती थी; अब पचरंगी बसें हैं। आज की बसों में उतरने के लिए दरवाजा एकदम आगे होता है।मुज में निकास द्वार थोडा पीछे था। मेरी पीढ़ी की बसों में चालककक्ष एकदम अलग था। आज की कुछ बसों में दरवाजा एकदम बीचोबीच होता है, जो की दो दरवाजों जितना चौड़ा होता है। मुज में जो दरवाजे थे संकरे थे। आज बसों में रेडियो होता है। मुझे व मेरे चालक को संगीत का आनंद नहीं मिलता था। हाँ, कोई कोई शौक़ीन चालक ट्रांजिस्टर रखता था। मेरी पीढ़ी की बसें पेट्रोल या डीज़ल से चलती थी। जब की आज की ज्यादातर बसें सीएनजी से चलती है। बहुत परिवर्तन हो गया है।

मुझे गर्व है की मैंने पूरी ईमानदारी से अपने कर्तव्य निभाया है। सब से ज्यादा ख़ुशी मुझे इस बात की है की मैंने कभी एक्सीडेंट नहीं किया। किसी को टक्कर तक नहीं मारी। दंगो के दौरान मैं भी एकबार 'बलात्कार' का शिकार हुई हूँ। लेकिन मैंने दंगाईयों को माफ़ कर दिया है। क्यों की मुझे पता है वे 'राह भटके मुसाफिर' हैं। अपने पथ से भटके हुए हैं। भला सच्ची 'राह' को, सच्चे 'पथ' को मुज से ज्यादा कौन जानता हैं? खुद उन्हें पता नहीं था की वो क्या कर रहे हैं।
कर्तव्य निभाते निभाते मैं जीवन संध्या के किनारे आ चुकी हूँ। यात्री बस के रूप में तो बहुत पहले छुट्टी पा चुकी हूँ। अब जीवन को हाथों में [जल जीवन ही तो है] लिए लिए घुमती हूँ। कुछ समय बाद पूर्ण निवृत्ति पानेवाली हूँ। निवृत्ति बाद मुझे कबाड़ख़ाने भेज दिया जायेगा। जो की एक तरह से बसों का शमसान हैं। जहाँ मेरा जीवन पूर्ण होगा। भौतिक तत्वों में से बने मेरे शरीर के अस्तित्व को मिटा दिया जायेगा।
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ता.01-11-2009 के दिन गुजराती बाल साप्ताहिक 'फूलवाड़ी' में छपी मेरी कहानी यथोचित परिवर्तन के साथ
कुमार अमदावादी


Wednesday 29 August 2012

फूल सुगन्धित करते हैं

      सरस्वती पाठशाला को रंगबिरंगी लड़ियों से सजाया गया था। कागज की लड़ियाँ चमचमा रही थी। मैदान में एक ओर मंच लगाया था। मंच सज्जा को भी खूबसूरती से सजाया गया था पाठशाला के स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में शानदार रंगारंग कार्यक्रम रखा गया था। हर कोई उत्साहित था क्यों कि राज्य के विख्यात साहित्यकार सिद्धराज त्रिवेदी कार्यक्रम के मुख्य मेहमान थे। वे दसवीं कक्षा तक इसी पाठशाला में पढ़े थे। मंच पर आचार्य सूर्यकान्त त्रिपाठी, उपाचार्य नीरज पंडित एवं सिद्धराज त्रिवेदी कुर्सियों पर विराजमान थे

      रंगारंग कार्यक्रम में बच्चों ने गीत, अभिनय, कविता आदि पेश किये
। कार्यक्रम के अंत में आचार्य ने माइक से बच्चों को संबोधित करते हुए कहा "जैसा की हम जानते हैं त्रिवेदीजी प्रसिद्ध व विद्वान साहित्यकार हैं। हम सब ये भी जानते हैं और ये हमारे लिए गर्व की बात हैं की वे दसवीं कक्षा तक इसी पाठशाला में पढ़े हैं। मैं उन से विनती करता हूँ। वे बच्चों को आशीर्वाद दें; साथ ही ये अनुरोध भी करता हूँ। वे हमें अपने विद्यार्थी जीवन का इस पाठशाला से जुड़ा कोई यादगार अनुभव बताएं।"

      सिद्धराजजी ने बच्चों को आर्शिवचन देने के बाद कहा "मैं जो अनुभव बताने जा रहा हूँ
। वो मेरे पूरे विद्यार्थी जीवन का यादगार अनुभव है। ये कहूँ तो गलत न होगा की  उसी अनुभव के कारण मैं साहित्यकार बना। ये कहकर वे घटना सुनाने लगे। 
      ये घटना उन दिनों की है जब मैं चौथी कक्षा में था। पढने में बिलकुल कमजोर था बड़ी मुश्किल से उत्तीर्ण होता था। मैं पढने में जरुर कमजोर था मगर मेरे अक्षर बहुत सुन्दर थे। लिखावट बहुत ख़ूबसूरत थी। मेरे कई शिक्षक वार्षिक अभ्यासक्रम का चार्ट मुज से बनवाते थे। उसी साल एक नए विद्यार्थी ने मेरी कक्षा में दाखिला लिया था। उस का नाम रजत था वो थोडा बदमाश किस्म का था। पढने में होशियार था। उस की याददाश्त बहुत अच्छी थी। मगर अक्षर बहुत ख़राब थे। उसे अक्षर ख़राब होने के कारण लिखना अच्छा नहीं लगता था। वो लिखने से हमेशा कतराता था

       रजत ने एक दिन सुबह पाठशाला शुरू होने से पहले मुझे घेरकर पूछा,
"ए सुनो सुना है, तुम्हारे अक्षर बहुत सुन्दर है? तुम्हारी लिखावट ख़ूबसूरत है?"
मैंने कहा "हाँ"
वो धमकीभरे अंदाज में बोला " आज दोपहर की आधी छुट्टी में कहीं मत जाना
। कक्षा में ही रहना तुम से थोडा सा कम करवाना है। और ख़बरदार जो मेरी बात अनसुनी की तो मास्टरजी से कहकर  डांट पडवा  दूंगा। पता है न मैं वर्ग का मुखिया हूँ।"

      मैं डर गया
। पढाई में कमजोर होने के कारण अक्सर डांट पड़ती रहती थी। एसे में उस की शिकायत के कारण ज्यादा डांट पड सकती थी। आधी छुट्टी में उस ने आधी छुट्टी से पहले पढाये गए विषयों का गृहकार्य करवाया लिया। मुझे करना पड़ा। गृहकार्य पढने पर उसे पता चला मैंने ज्यादातर उत्तर गलत लिखे थे। दुसरे दिन उस का भी रास्ता खोज लिया। उस ने कहा " मैं बोलता हूँ तू लिख और थोड़ी ऊँची आवाज़ में बोलते हुए लिख जिस से मुझे पता चले की तू गलत तो नहीं लिख रहा। मुझे वैसा ही करना पड़ा। फिर वो रोज गृहकार्य करवाने लगा। मुझे दो बार गृहकार्य करना पड़ता पाठशला में उस का व घर पर मेरा। एक बार मैंने आचार्य से शिकायत की तो वे बोले " अच्छा है तेरे जैसे कमजोर को होशियार बनाने का ये तरीका सही है।"

      पर थोड़े दिनों बाद मुझे फायदा होने लगा
। ऊँची आवाज़ में बोलते हुए लिखना मेरी आदत बन गई। इस आदत के कारण उत्तर याद रहने लगे। इस बात का सुबूत तब मिला जब वक दिन अपना गृहकार्य करते वक्त मैंने दो तीन प्रश्नों के उत्तर गाइड या किताब में देखे बिना लिख दिए। वर्ना मैं गाइड या किताब में देखे बिना उत्तर लिख नहीं सकता था। किताब या गाइड में देखकर ही गृहकार्य करता था। उस में काफी समय लगता था। थोड़े दिनों बाद किताब या गाइड में देखे बिना आठ दस प्रश्नों के उत्तर लिख दिए। इस तरह उत्तर लिखना मुझे अच्छा लगा। अनजाने में ही सही पर बोलते हुए लिखने की आदत के कारण मेरी यादशक्ति बढ़ने लगी थी। 

      इस तरह गृहकार्य करने के कारण मुझे एक और फायदा हुआ। मुझे खेलने के लिए ज्यादा समय मिलने लगा। पहले ढेर सारा समय किताब या गाइड में से उत्तर खोजने में लग जाता था जो बचने लगा। बचा हुआ समय खेलने के लिए मिलने लगा। पढाई के पाठ याद रहना तथा खेलने के लिए ज्यादा समय मिलना: यूँ दो तरफ़ा फायदा होने के कारण मुझे दो बार गृहकार्य करने में अच्छा लगने लगा। फिर तो मैं बड़ी लगन से रजत का गृहकार्य करने लगा ताकि जब मैं मेरा गृहकार्य करूँ तो कम समय में कर सकूं। बचे समय का फायदा उठाकर ज्यादा समय खेल सकूँ

     यादशक्ति बढ़ने के कारण इम्तिहान में भी फायदा हुआ
। अर्ध वार्षिक इम्तिहान में अच्छे मार्क्स मिले। जानकारी बढ़ने के कारण इतिहास,भूगोल व कविता में मज़ा आने लगा। वार्षिक इम्तिहान में और भी अच्छे मार्क्स मिले। उस के बाद मैं वाचन भी ऊँची आवाज़ में करने लगा। मेरा लेखन व वाचन बढ़ता गया। बढ़ते बढ़ते एसा बढ़ा कि बड़ा होकर मैं साहित्यकार बन गया

     आज मुझे एक कहावत याद आती है 'फूल हमेशा सुगन्धित करते हैं
।' रजत द्वारा जबरदस्ती करवाए गए गृहकार्य से मुझे फायदा हुआ क्यों कि वो होशियार विद्यार्थी था। उस के संग ने मुझे भी होशियार बना दिया। वो मुज से जबरदस्ती गृहकार्य न करवाता तो शायद मैं कमजोर विद्यार्थी ही रहता। साहित्यकार न बनता

     तो, प्यारे बच्चों ये था मेरे विद्यार्थी जीवन का सब से यादगार व महत्वपूर्ण अनुभव जिस ने मेरी जिन्दगी बदल दी
। रजत नाम के एक फूल ने मेरे जीवन में सुगंध भर दी
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गुजराती बाल-साप्ताहिक 'फूलवाड़ी'[करीब दो साल पहले]तथा'सहज बालआनंद' [ऑगस्ट 2012]में छपी मेरी  कहानी का उचित परिवर्तनों के साथ हिंदी अनुवाद

कुमार अहमदाबादी/ महेश सोनी


Thursday 23 August 2012

पंछी और पिंजरा


हम ही पंछी
 हम ही पिंजर
 हम ही तूफां 
हम ही लंगर

   कवियत्री  पारुल खख्खर
 कवियत्री ने मत्ले में संकेत दीये हैं। इस ग़ज़ल में वो व्यक्तित्व के दो ध्रुवों को पेश करेगी। कवियत्री कहती है हम ही पंछी...इन्सान सदियों से पंखी की तरह उड़ने के स्वप्न देख रहा है। 

स्वप्न को पूरा करने के लिए हेलिकोप्टर, बलून, विमान के अविष्कार भी किये है। मगर पंखी की तरह स्वतन्त्र रूप से उड़ना अब तक संभव नहीं हुआ है। जीवन में कुछ हासिल करने के प्रयासों को 'उड़ने' के साथ जोड़ सकते हैं। इन्सान सपनों को सच करने के लिए खुले गगन में उड़ना चाहता है पर...

इसी मिसरे में कवियत्री आगे कहती है हम ही पिंजर..। इन्सान ने खुद ऐसे पिंजरे बनाये हैं। जो उस की उडान को रोकते हैं। जाति, धर्म, प्रान्त, राज्य, राष्ट्र  ऐसे पिंजरे हैं। जो उडान में बाधा बनते हैं। इन की सलाखें इतनी मजबूत है की  इन्सान चाहकर भी तोड़ नहीं पाता। विशेषत: जाति व धर्म के पिंजरे इतने मजबूत हैं कि बड़े बड़ों को चित्त कर देते हैं।
  सानी मिसरे में कवियत्री कहती है कि हम ही तूफां..। इंसान के जीवन में कई तूफान आते हैं। जो उस के भीतर कई तूफान खड़े कर देते हैं। एक घटना [खास तौर से दुर्घटना] मन में , जीवन में कई चक्रवातों को ले आती है। माता-पिता के रहते  संतान कि मृत्यु, कम उम्र में जीवनसाथी से बिछड़ जाना, बचपन में माता-पिता की छत्रछाया से वंचित हो जाना; एसी घटनाएँ हैं। जो चक्रवातों को जन्म देती हैं। एसी घटनाएँ आस्तिक को नास्तिक व नास्तिक को आस्तिक बना देती हैं। 
 इसी मिसरे में कवियत्री आगे कहती है हम ही लंगर..। इन्सान तूफानों का सफलतापूर्वक सामना करने की हिम्मत भी रखता है। इस के लिए उसे कई मोर्चों [मानसिक, पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक] पर एक साथ झूझना पड़ता है। दुर्घटना के कारण मानसिक शारीरिक समस्याओं के पैदा होने का खतरा रहता है। सामाजिक  स्तर पर पारिवारिक प्रतिष्ठा के झीर झीर होने का का खतरा होता है या मिल चुकी हो तो वापस प्राप्ति का संघर्ष सामने होता है। मानसिक समस्याएं हो तो व्यवसाय में नुकसान हो सकता है। इन मोर्चों पर इंसान झूझता है। धन्य है,  प्रशंशनीय है वो इंसान जो सफलता के किनारे पर लंगर डालकर ही चैन की साँस लेता है।


 गुजराती अख़बार 'जयहिंद' में मेरी कोलम 'अर्ज़ करते हैं' में  ता.19/08/2012  को छपे लेख का हिंदी भावान्तर
कुमार अहमदाबादी/अभण अमदावादी 



Thursday 16 August 2012

विचार और स्वप्न


ख्वाब जैसे ख्याल होते हैं
इश्क में ये कमाल होते हैं
सीमा गुप्ता प्रसिद्ध कवियत्री हैं। अपनी उर्दू गज़लों में वे ज्यादातर प्यार से संबंधित विविध भावों को व्यक्त करती हैं।

प्रस्तुत शेर के उला मिसरे में कवियत्री ने विचार (ख्याल) को स्वप्न सामान कहा है। नींद के दौरान दिखनेवाले द्रश्यों को स्वप्न कहा जाता है। उन स्वप्नों की कोई निश्चित गति या प्रवाह नहीं होते। एशिया में स्थित हिमालय या अंगकोरवाट मंदिर या चीन की दीवार यूरोप या अमरिका में दिख सकते हैं। यूरोप का एफिल टावर, लन्दन ब्रिज या अमरिका का स्टेच्यु ऑफ़ लिबर्टी एशिया या ओस्ट्रेलिया में दिख सकते हैं। नींद खुलते ही (वास्तविकता का सामना होते ही) स्वप्न टूट जाते हैं।
इन्सान अपने लक्ष्य को भी स्वप्न कहता है। जैसे की मेरा स्वप्न है की मैं फार्म हॉउस बनाऊं, पचास लाख की कर लूँ, अमरिका घुमने के लिए जाऊं, मनचाही लड़की से शादी करूँ आदि आदि। इन्सान जब स्वप्न देखता है तब उसे पता नहीं होता वो सच होंगे की नहीं। सच हो जाये तो ठीक वर्ना वास्तविकता अक्सर स्वप्नों को तोड़ देती है। उन की गति या प्रवाह सफलता की तरफ होगा या निष्फलता की तरफ, ये तय नहीं होता।
 

  जैसा की ऊपर लिखा है स्वप्नों की कोई निश्चित गति या प्रवाह नहीं होते। एक विचार एसा आता है। जो बहुत महत्वपूर्ण होता है: तोअगला विचार जो आता है बिलकुल अर्थहीन होता है। मगर ये भी एक सच्चाई है की विचार ही हमें वास्तविकता से रूबरू करवाते हैं। शायद इन्हीं समानताओं के कारण कवियत्री ने विचारों को स्वप्नों जैसे कहा है।

सानी मिसरे में कवियत्री ने बताया है की विचार स्वप्न जैसे कब होते है। कवियत्री कहती है की ये कमाल ईश्क, प्यार, मुहब्बत के दौरान होता है। मुझे ये कमाल की बात लगी की कवियत्री ने विचारों की अस्थिरता को कमाल कहा है।
एक नमूना हो जिन्दगी जिन की
लोग वो बेमिसाल होते हैं
नमूना यानि उदहारण। जिनका जीवन उदाहरणीय होता है; प्रेरक होता है: वे लोग बेमिसाल होते हैं। ये सही है। ये शेर सरल पर उच्च कोटि का विचार पेश करता है।
महात्मा गाँधी, सुभाषचन्द्र बोज़, ध्यानचंद, अब्दुल कलाम,शहीद सम्राट भगतसिंग से व्यक्तियों का जीवन उदाहराणीय है। इन सब के जीवन आज भी लोगों को प्रेरित करते है।
ईश्क बर्बाद हो गया कैसे?
हुस्न से सवाल होते हैं
प्रेम की भाषा में स्त्री को हुस्न व पुरुष को ईश्क कहा जाता है। कवियत्री कह रही है 'हुस्न से ईश्क की बर्बादी के कारण पूछे जा रहे हैं।' जब की सच ये है की ईश्क अकेला बर्बाद नहीं होता। बर्बादी की चक्की में उस के साथ हुस्न भी पिसता है। दोनों की बर्बादी के लिए किसी एक को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जिस तरह एक हाथ से ताली नहीं बजती। एक व्यक्ति के कारण प्यार बर्बाद नहीं होता।
कवियत्री केर मन में भी कहीं न कहीं शायद ये बात है। शब्द-गति व शब्द-प्रवाह से मुझे एसा लग रहा है की कवियत्री को भी ये खटक रहा है की ये सवाल हुस्न से क्यों पूछा जा रहा है?
  


ता.12/08/2012 के दिन गुजराती अख़बार 'जयहिंद' में मेरी कोलम 'अर्ज़ करते हैं' में कवियत्री सीमा गुप्ता की ग़ज़ल के बारे में छपे विवेचन लेख का उचित परिवर्तनों के साथ हिंदी अनुवाद