स्वागत

मेरे 'शब्दों के शहर' में आप का हार्दिक स्वागत है। मेरी इस दुनिया में आप को देशप्रेम, गम, ख़ुशी, हास्य, शृंगार, वीररस, आंसु, आक्रोश आदि सब कुछ मिलेगा। हाँ, नहीं मिलेगा तो एक सिर्फ तनाव नहीं मिलेगा। जिंदगी ने मुझे बहुत कुछ दिया है। किस्मत मुज पर बहुत मेहरबान रही है। एसी कोई भावना नहीं जिस से किस्मत ने मुझे मिलाया नहीं। उन्हीं भावनाओं को मैंने शब्दों की माला में पिरोकर यहाँ पेश किया है। मुझे आशा है की मेरे शब्दों द्वारा मैं आप का न सिर्फ मनोरंजन कर सकूँगा बल्कि कुछ पलों के लिए 'कल्पना-लोक' में ले जाऊंगा। आइये आप और मैं साथ साथ चलते हैं शब्दों के फूलों से सजी कल्पनाओं की रंगीन दुनिया में....

Thursday 30 August 2012

माँ का असर [तमाम माताओं को समर्पित]

ये सन 2006 की घटना है। उस वक्त 2001 के भूकंप की यादें आज से ज्यादा ताजा थी। 2005 में हम पुनः दसवीं मंजिल पर रहने लगे थे। 2006 के मार्च 6 व अप्रैल 7 को भूकंप के आफ्टर शॉक आए जो काफी तगडे थे। मैं विचलित हो गया। दूसरे झटके के दूसरे दिन छपी खबर ने आग में घी डालने का काम किया। खबर ये थी कि गुजरात में नई फॉल्ट लाईन सक्रिय होने के कारण कभी भी 2001 जैसा भीषण भूकंप हो सकता है। बस फिर क्या था मन में निरंतर विचारों का तूफान चलने लगा। आप समझ सकते हैं। जिस ने 2001 का भीषण भूकंप दसवीं मंजिल पर झेला हो उस पर एसी खबर सुनकर क्या बीत सकती है? जब दिमाग विचार करते करते थक जाता तो मुश्किल से घंटे दो घंटे नींद आती। दो दिन ये स्थिति रही। विचारोँ की प्रक्रिया लगातार चलती रहती। मुझे लगा एसे ही चलता रहा तो शायद मानसिक स्थिति बिगड़ जाए। क्या करूँ? समस्या से कैसे निपटूँ? ये विचार भी चलते थे। एक विचार उभरा 'जहाँ समस्या हो वो जगह छोड़ देनी चाहिए।' ठीक है छोड़ दूँ पर यूँ खड़े पैर जाऊँ कहाँ? फिर विचार उभरा माँ के घर 2001 में भी तो पंद्रह दिन वहीं रहा था। माँ के घर गया। माँ पिताजी भाई सब से विचार विमर्श के बाद उसी दिन हम माँ के घर रहने चले गए। वहाँ भी रात को सोया तब तक वैचारिक तूफान चल रहा था।

एक के बाद एक विचार आ रहे थे जा रहे थे। यूँ समजो विचारों के रेगिस्तान में भटक रहा था।

अचानक.....
एक पुरानी फिल्म का मशहूर संवाद याद आया। संवाद के अनुसंधान में उभरे विचार ने रणद्वीप पर पहुँचा दिया। विचारों का तूफान शांत हो गया। ईतना शांत की उस के बाद जो नींद आई वैसी पिछले कई वर्षों में नहीं आई थी।

मन, मस्तिष्क को 'शांत व रिलेक्ष' करनेवाली प्रक्रिया जिस फील्म से शुरु हुई वो थी 'दीवार', संवाद था 'मेरे पास माँ है'। संवाद के बाद मन में उभरा विचार था 'आज मुझे कुछ नहीं होगा क्यों कि 'मैं माँ के पास हूँ, माँ के घर में हूँ, माँ के दामन में हूँ।"
दूसरे दिन उठते ही जो गीत लिखा वो ये था।



 माँ का घर...
माँ का घर छूटा है जब से।
जग सारा रुठा है मुज से।
घर क्या छूटा दुनिया छूटी।
सुख दुख और खुशीयाँ रुठी।
सच कहता हूँ मैं ये माता।
रुठ गया है मुज से विधाता।
 
माँ .... मे........री माँ
माँ.... तू... है कहाँ
बाग रूठा, माली रूठा, गुलशन के सब फ़ूल रूठे
अपने रूठे, बेगाने भी, रूठ गए है अनजाने भी..माँ
सूरज रूठा, चन्दा रूठा, नभ के सारे तारे रूठे,
धरती रूठी, आसमाँ भी, रूठ गया है वो खुदा भी...माँ
संध्या रूठी, उषा रूठी, घडी के सारे कांटे रूठे,
रात रूठी, दोपहर भी, रूठ गई है देखो हवा भी,.......माँ
आग रूठी, पानी रूठा, साराजीवन-चक्र रूठा
मौत रूठी, जिंदगी भी,रूठ गई है बंदगी भी .. .......माँ
 
महेश सोनी/ कुमार अहमदाबादी

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