स्वागत

मेरे 'शब्दों के शहर' में आप का हार्दिक स्वागत है। मेरी इस दुनिया में आप को देशप्रेम, गम, ख़ुशी, हास्य, शृंगार, वीररस, आंसु, आक्रोश आदि सब कुछ मिलेगा। हाँ, नहीं मिलेगा तो एक सिर्फ तनाव नहीं मिलेगा। जिंदगी ने मुझे बहुत कुछ दिया है। किस्मत मुज पर बहुत मेहरबान रही है। एसी कोई भावना नहीं जिस से किस्मत ने मुझे मिलाया नहीं। उन्हीं भावनाओं को मैंने शब्दों की माला में पिरोकर यहाँ पेश किया है। मुझे आशा है की मेरे शब्दों द्वारा मैं आप का न सिर्फ मनोरंजन कर सकूँगा बल्कि कुछ पलों के लिए 'कल्पना-लोक' में ले जाऊंगा। आइये आप और मैं साथ साथ चलते हैं शब्दों के फूलों से सजी कल्पनाओं की रंगीन दुनिया में....

Thursday 13 December 2012

चटकते लब


 रंज ईतने मिले जमाने से
लब चटकते हैं मुस्कुराने से
सिया सचदेव

सिया सचदेव बेहद भावुक कवयित्री है। ये बात प्रस्तुत ग़ज़ल का मत्ला पढ़ने से स्पष्ट
हो जाती है। उला मिसरे में कवयित्री सूचित करती है कि समाज व दुनिया द्वारा पीड़ा मिली है। वेदना का मन पर हुए असर के बारे में सानी मिसरे में बताया
है। आदमी के घायल मन की असर उस के हास्य में भी दिखती है। कवयित्री ने 'लब चटकते हैं...' वाक्य द्वारा अद्भूत तरीके से मानसिक वेदना को उजागर किया
है। कवयित्री कहती है।जमाने ने ईतने गम दिये है कि खुशी के अवसर पर खुश होने से खुशी फट जाती है।

मत बनाओ ये काँच के रिश्ते
टूट जाएँगे आजमाने से

जीवन में कुछ एसे प्रसंग घटित होते हैं। जो रिश्तों की परीक्षा लेते हैं। उन्हें परखते हैं।
एसे अवसरों पर कांच से नाजुक रिश्ते पल के सौंवे हिस्से में टूट जाते हैं। काँच से रिश्ते टूट जाएँ तो आश्चर्य क्या? रिश्ते विश्वसनीय होने चाहिए। ख्याल कीजिए कवयित्री ये नहीं कहती रिश्ते बनाईये मत। वो ये कहती है काँच जैसे रिश्ते मत बनाईये।

हो ही जाएँगे सब रिहा ईक दिन
छूट जाएँगे कैदखाने से

दार्शनिक शेर
एक दिन सब को मुक्ति मिलनी है। ये जग कैदखाना है। यहाँ से सब की बिदाई तय है। हाँ बिदाई की तारीख या समय किसी को मालूम नहीं। कोई नहीं जानता कौन कब यात्रा पर रवाना हो जाय।

ता.25।11।2012 के दिन गुजराती दैनिक 'जयहिंद' में मेरी कॉलम 'अर्ज करते हैं' में छपे लेख का अनुवाद
कुमार अहमदाबादी/अभण अमदावादी

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